हो गये हैं शब्द क्यों सम्बोधनों के मौन .
खींचता नैराश्य जग में जिन्दगी को कौन.
खिलखिलाहट हो गई गुजरे समय की बात ,
अब नहीं होती रसिक मनु हार की बरसात,
भूल कर उद्बोधनों को अधर बैठे मौन.
व्यर्थ की आसक्ति मन में भय का ताण्डव है
रंजिशों के सिलसिले हैं व्यथित मानव है
जेठ की दोपहरियों की बतकही भी मौन .
द्वेष की दीवार आंगन बीच बैठी है
द्वार पर सम्वेदना की चाल ऐंठी है
खिड़कियों पर धूप बैठी दीखती है मौन .
चल रहा पगडंडियों का एक गुमसुम दौर
अब न चौपालों में मिलता कहकहों को ठौर
छाँव पीपल की अकेली
बैठती है मौन
यशोधरा यादव ‘यशो’ D-963/21कालिन्दी बिहार
आवास विकास कॉलोनी आगरा उत्तर प्रदेश
बहुत सुंदर नवगीत बहुत बहुत बधाई आपको
Comments are closed.