पानी पानी नहिं रहा, 
पानी बना विशेष |
मात भारती कौ भुवहिं, 
रूप कुरूपहिं भेष ||1||
तापमान की बेरुखी,
इसकी कुत्सित चाल |
जन मानस का हो रहा, 
हाल यहाँ बेहाल ||2||
पेड़ काटि हमने दिए, 
किनको दैहैं दोष |
नदियाँ नाले सूखिहै, 
दुर बरखाई कोष ||3||
फट- फट मोटर कार सब,
 हैं आफ़त की सेज |
 सड़किनु पै जे जब चलहिं, 
चहुँं धीमी चहुँ तेज ||4|| पॉलीथिनहिं प्रयोग सों, 
बढ़िहिं प्रदूषण आम |
ये सब भी हम करि रहहिं, 
बेहद घटिया काम ||5||
शक्ति प्रदर्शन के लिए, 
मचिअ जगत महिं होड़ |
विकट रूप परमाणु का, 
लगिअ जोड़ अरु तोड़ ||6||
नख शिख तक सब सुधरि लहिं, नहिं हुइ जइहै देर |
इक दिवसहिं अस आवहीं, 
हुइ जावहिं जग ढेर ||7||
~अकबर सिंह अकेला,मानिकपुर |








 
				 
				 
								 
								 
												 
												 
												



