एक
दरोगा है वो दुनिया का दरोगाई दिखाता है।
जिसे चाहे बनाता है, जिसे चाहे मिटाता है।
अमन के दुश्मनों को रात में वो देके बंदूके,
सुबह से फिर वयम रक्षाम का नारा लगाता है।
सियासत का खिलाड़ी है बड़ी चतुराई से देखो,
रियासत को लुटाकर वोट की फसलें उगाता है।
उजाले में सजाता है दुकाने संस्कारों की,
अंधेरे में वो हर इक लाज का घूंघट उठाता है।
दिखाता है वो तस्वीरें बहारों की, नज़ारों की,
बनाता है वो सबको मूर्ख , सहरा में घुमाता है।
वो सबको देता है उत्तर मगर अपने ही प्रश्नों के,
हमारे तो सवालों को अभी भी टाल जाता है।
कोई रिश्ता नहीं उससे मगर कुछ बात है उसमें,
कि उसका पास में होना ही अपनापन जगाता है।
दो
भला अब फायदा क्या है यूँ रिश्तों की दुहाई से।
हदें पहले तो तुमने तोड़ डालीं बेहयाई से।
भरोसा मत करो बेशक मगर तुम भाई ही तो हो,
मुझे कैसे खुशी होगी तुम्हारी जगहंसाई से।
अगर तुम मांगते तो मैं मना कर ही नहीं पाता।
मगर तुम ही बताओ क्या मिला तुमको लड़ाई से।
हवस है तुमको दौलत की मुबारक हो तुम्हें दौलत,
मुझे क्या लेना देना है तुम्हारी उस कमाई से।
कभी तो इनकी गर्माहट मिलेगी मेरे अपनों को,
जो रिश्ते बन रहा हूँ मैं मुहब्बत की सलाई से।
वो रूठा भी तो आखिरकार मुझसे इस तरह रूठा,
कि जैसे रूठ जाएं चूड़ियां ज़िंदा कलाई से।
मई और जून है तो धूप के तेवर भी तीखे हैं,
मगर उम्मीद के बादल भी आएंगे जुलाई से।
तीन
नया सूरज निकलता आ रहा है।
अंधेरे को निगलता जा रहा है।
मुसीबत जितनी उसपे आ रही हैं,
वो उतना ही निखरता जा रहा है।
वो मां है इसलिए हर लफ्ज़ उसका
मेरी खातिर दुआ जैसा रहा है।
तुम्हें खतरे का अंदाज़ा न होगा,
नया तूफान बस जो आ रहा है।
जिसे तुम भी असम्भव मानते थे,
हमारी सोच में जिंदा रहा है।
चार
मैं साये की तरह उससे जुड़ा हूँ।
मगर वो सोचता है में जुदा हूँ।
मुझे हर मोड़ पर लूटा गया है,
में बेशक़ नेकियों का काफ़िला हूँ।
ज़रा सा झांककर देखो तो मुझमें,
तुम्हारे वास्ते मैं आईना हूँ।
समेटूँ खुद को आख़िरकार कैसे,
बदन से रूह तक फैला हुआ हूँ।
समझ मेँ आएगा दुनिया को एक दिन,
मैं जो कुछ आज सबसे कह रहा हूँ।
मुझे ऐ ज़िन्दगी इतना बता दे,
यहां कब तक ज़मानत पर रिहा हूँ।।
संजीव गौतम गांव-वासदत्ता(जैतई), सादाबाद, हाथरस वर्तमान पता- 11ब गौरी कुंज, गैलाना रोड , आगरा