शारदे माँ शारदे तू , ज्ञान हम पर वार दे ।
दूर कर अज्ञान का तम, अब जहां को तार दे ।।
वंदना से आरती हो, लेखनी ही थाल हो ।
धूप दीपक काव्य का हो, छंद की जयमाल हो ।।
गीत सब हो जायें अक्षत, ऐसी वीणा तान दो ।
कंठ में होकर समाहित, स्वर को मीठा गान दो ।।
लिख सके अविराम ऐसी लेखनी को धार दे।
शारदे माँ शारदे तू ….
पुष्प शब्दों के सुगन्धित विश्व को करते रहें।
अर्थ देकर हर हृदय में चेतना भरते रहें।।
हो सृजन ऐसा कि जिससे मार्ग भटके को मिले।
दूर हों सब सामने से विघ्न बाधा के किले।।
डगमगाती जिंदगी को माँ नई रफ्तार दे।
शारदे माँ शारदे तू ….
स्वर्ग हो संसार सारा, छल कपट सब दूर हो ।
सत्य की हो लौ प्रज्वलित, प्रेम भी भरपूर हो।।
प्राणियों में प्राणियों के प्रति न नफ़रत भाव हो।
दूर हों सारी बुराई आपसी सद्भाव हो।।
‘शब्दिका’ की है विनय माँ, अब धवल संसार दे।
शारदे माँ शारदे तू ….
कु० राखी सिंह शब्दिता