
नई दिल्ली 19 नवंबर । सुप्रीम कोर्ट ने महिलाओं की संपत्ति से जुड़े विवादों को रोकने के लिए महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए कहा है कि जिन महिलाओं के न पति, न बेटे और न बेटियां हैं, उन्हें चाहिए कि वे अपने जीवनकाल में ही वसीयत तैयार कर लें। अदालत ने कहा कि ऐसा करने से भविष्य में मायके और ससुराल पक्ष के बीच होने वाले संभावित कानूनी विवादों से बचा जा सकेगा। शीर्ष अदालत ने माना कि 1956 में हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम बनाते समय संसद ने यह सोचा होगा कि महिलाओं के पास स्वयं अर्जित संपत्ति नगण्य होगी, लेकिन आज की स्थिति इससे बिल्कुल अलग है। पिछले वर्षों में महिलाओं की शिक्षा, रोजगार और उद्यमिता में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है, जिसके चलते उनके पास स्वयं अर्जित संपत्ति की मात्रा भी बहुत बढ़ी है।
अदालत ने चिंता जताई कि ऐसी स्थिति में, जब किसी हिंदू महिला की मृत्यु बिना वसीयत के हो जाए और उसके पति, बेटे या बेटियां न हों, तो उसकी स्वयं की कमाई से अर्जित संपत्ति केवल पति के वारिसों को मिल जाना मायके पक्ष के प्रति अन्यायपूर्ण हो सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने यह टिप्पणी धारा 15(1)(b) को चुनौती देने वाली अधिवक्ता स्निधा मेहरा की जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए की। जस्टिस बी.वी. नागरत्ना और जस्टिस आर. महादेवन की पीठ ने मामले का निपटारा करते हुए कहा कि यह सुझाव देश की महिलाओं, विशेषकर हिंदू महिलाओं के हितों की रक्षा के लिए आवश्यक है, ताकि भविष्य में किसी प्रकार के कानूनी विवाद पैदा न हों।
उल्लेखनीय है कि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 15(1)(b) के अनुसार यदि किसी हिंदू महिला की मृत्यु बिना वसीयत के होती है, तो उसकी संपत्ति उसके माता-पिता से पहले उसके पति के उत्तराधिकारियों को मिलती है। याचिका में इस प्रावधान को मनमाना बताते हुए कहा गया कि यह संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 का उल्लंघन करता है और इसे रद्द किया जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी महिलाओं की संपत्ति अधिकारों को लेकर एक महत्वपूर्ण दिशा निर्देश मानी जा रही है।










