हाथरस । शहर के पूर्वी छोर पर राजा दयाराम का किला रोचक इतिहास समेटे हुए है तथा इस शहर की पहचान भी है। अंग्रेजी हुकूमत के आगे न झुकने की गवाही किले पर बने दाऊजी मंदिर की प्राचीर आज भी देता है। बताते हैं कि 1857 में क्रांतिवीरों के लिए यही किला उनकी शरणस्थली भी बना था। अंग्रेजों के हमले के बाद 1817 में जब राजा दयाराम ने किला छोड़ा था, तब से दाऊजी मंदिर के पट भी बंद थे। दाऊजी महाराज की सेवा भी बंद हो गई थी। वर्ष 1912 में हाथरस किला पर लगने वाले ऐतिहासिक लक्खी मेले की शुरुआत हुई थी। उस समय हाथरस के तहसीलदार श्यामलाल हुआ करते थे। बताते हैं कि श्यामलाल के बेटे की तबीयत काफी खराब थी तथा वह मृत्यु के निकट था। मान्यता है कि तब तहसीलदार को सपने में दाऊजी महाराज का आदेश हुआ कि मंदिर को खुलवाकर सेवा शुरू कराओ। बताते हैं कि तहसीलदार ने मंदिर खुलवाकर सेवा-पूजा शुरू कराई तो मृत्यु शैया पर पड़ा बेटा ठीक हो गया। इस पर तहसीलदार ने पहली बार मेला आयोजित कराया था। तब से शुरू हुआ मेला हर साल निखर रहा है। भाद्र मास में देवछठ से एक पखवाड़े से ज्यादा समय तक लगने वाले मेले की पहचान ब्रज क्षेत्र के लक्खी मेले के रूप में है।
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