3 मई को अलीगढ़ के हाथरस तहसील में अलीगढ़ और मथुरा जिले की कुछ तहसीलों को मिलाकर हाथरस नामक एक नया जिला निर्माण करने की घोषणा की गई | हाथरस के जिला बनाने की अधिसूचना 06 मई 1997 को जारी की गई थी। हाथरस उत्तर भारत के ब्रज क्षेत्र के अंतर्गत आता है और अलीगढ़ के एक हिस्से के रूप में अपनी औद्योगिक, साहित्यिक, और सांस्कृतिक गतिविधियों के लिए प्रसिद्ध रहा है । ऐतिहासिक रूप से और पुराण कथ्यों के अनुसार हाथरस महाभारत के समय का हो सकता है, क्योंकि पुरानी लोक कथाओं और पुरातात्विक अवशेषों से ये साबित होता है। छोटू बनमाली की “गोकुल महात्म्य” की कहानी के अनुसार, भगवान कृष्ण के जन्म के समय भगवान शिव-पार्वती इस मार्ग से बृज को गए थे और जिस स्थान पर माता देवी पार्वती रुकीं थीं उसे हाथरसी देवी कहा जाता है । हाथरसी देवी का स्थान होने के कारण ही इस जगह को हाथरस नाम दिया गया था। इस नगर का निर्माण कब किया गया था और इसे किसने बसाया था, इसके कोई दस्तावेजी सबूत उपलब्ध नहीं हैं। लेकिन शहर के पुराने किले के अवशेष अपनी कहानी कह रहे हैं । कुषाण, गुप्त, राजपूत और मराठा शासकों का इस क्षेत्र पर शासन रहा था। सन 1716 में जाट शासक राजा नंदराम के बेटे भोज सिंह ने राजपूत शासकों से हाथरस का शासन लिया था। भोज सिंह के बाद उनके पुत्र सदन सिंह और सदन सिंह के बाद उनके पुत्र भुरी सिंह हाथरस के शासक रहे । शायद भूरि सिंह ने हाथरस के किले में भगवान बलराम जी के मंदिर की स्थापना की थी। यह मंदिर अभी भी मौजूद है और अपनी महान कहानी कहता है। हर वर्ष इस मंदिर में “लक्खी मेला” “देव छट” से प्रारम्भ होता है। हाथरस का महान इतिहास श्री भुरी सिंह के बाद शुरू होता है जब उनके पुत्र राजा दयाराम ने सन 1775 ईस्वी में हाथरस का शासन सम्हाला था। सन 1784 में सिंधिया शासक महाद जी सिंधिया ने अपना शासन इस क्षेत्र में स्थापित किया था और राजा दयाराम ने उनके साथ समझौता किया था। जब सन 1796 में सिंधिया दक्षिण की ओर चले गए, तब राजा दयाराम पूरी तरह से स्वतंत्र हो गए । सन 1794 में अंग्रेजों की चालें उत्तर भारत में तेज हो गई थीं उन्होंने जो भी रियासतें उनके रास्ते में आयीं उनको अपने अधिकार में ले लिया। फिर भी हाथरस स्वतंत्र बना रहा। राजा दयाराम ने अंग्रेजों के दास बनने का प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया। आखिर में युद्ध 1817 में शुरू हुआ। अंग्रेजों ने राजा दयाराम को किले को छोड़ने और आत्मसमर्पण करने की चेतावनी दी। लेकिन बहादुर राजा दयाराम ने मेजर जनरल मार्शल की चेतावनी पर कोई ध्यान नहीं दिया। फरवरी-मार्च 1817 में भयानक युद्ध हुआ, अंत में राजा दयाराम ने 2 मार्च 1817 को किले को संसाधनों की कमी और आस-पास के रियासतों के आत्मसमर्पण के कारण छोड़ दिया और एक गुप्त मार्ग के माध्यम से बाहर चले गए । इसके बाद हाथरस ब्रिटिश शासन का एक हिस्सा बन गया | राजा दयाराम के पुत्र गोविंद सिंह ने अंग्रेजों के साथ हाथ मिला लिया और कुछ गांवों की जमींदारी ले ली और वृंदावन में रहना शुरू कर दिया। श्री गोविंद सिंह के दत्तक पुत्र श्री हरनारायण सिंह भी वृंदावन में अंग्रेजों के भक्त बने रहे। श्री हरनारायण सिंह के वंश में आगे कोई नहीं था, इसलिए उन्होंने बाद में श्री महेंद्र प्रताप सिंह नामक मुरसान राज्य के राजा घनश्याम सिंह के तीसरे बेटे को दत्तक ले लिया, जिन्होंने खुद को एक संघर्षरत स्वतंत्रता सेनानी के रूप में साबित कर दिया। विदेश में रहने वाले राजा महेंद्र प्रताप सिंह ने 32 वर्षों तक स्वतंत्रता संग्राम की मशाल प्रज्वलित रखी। उन्हें काबुल के “बाग़-ए- बाबर” में स्वतंत्र भारत की अस्थायी स्वतंत्र सरकार के अध्यक्ष के रूप में नियुक्त किया गया था। इसके बाद राजा महेंद्र प्रताप भारत लौट आए। हाथरस में कई स्थानों पर हिंदू, बौद्ध, जैन संस्कृति, शुंग और कुषाण काल के पुरातत्व अवशेष पाए गए हैं। इन पुरातात्विक और ऐतिहासिक स्थानों में राजा शहर में स्थित राजा दयाराम का किला है जहां से मौर्य काल का (द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व) कत्थई रंग बर्तन और कुषाण काल की मिट्टी की “सप्त मातृकाफलक” आदि पाये गए। पुराने मंदिरों में भगवान “विश्वेश्वर महादेव” का मंदिर विशेष है । शैव शासकों और नाग राजाओं का भी यहां प्रभुत्व है, जिनके अवशेष यहां-वहां बिखरे हुए हैं। नाग शासकों के समय में शेषावतार भगवान बलराम जी को महत्व दिया गया और उनके मंदिर सभी क्षेत्र में पाए जाते हैं । पुरानी टूटी हुई मूर्तियां जिनका महान पुरातात्विक मूल्य है, अभी भी बृज क्षेत्र में पूजी जाती हैं। यहां प्राप्त पुरातात्विक अवशेष और मूर्तियां मथुरा संग्रहालय में रखी गई हैं। यहाँ का नयावास (नयागंज) का जैन मंदिर जैन संस्कृति की कहानी कहता है। यहां पर पुरानी मूर्तियों पर संवत 1548 विक्रमी लिखा हुआ है। इसका अधिकतर इतिहास सिकंदराराऊ , महो, सासनी आदि के किलों के अवशेषों में है, जो आगे शोध का विषय हो सकता है। बौद्ध काल की मूर्तियों को जो कि सहपऊ, लाखनू आदि स्थानों में बिखरी हुई थीं, को अलीगढ़, मथुरा और जिला परिषद कार्यालय के संग्रहालय में रखा गया है। सहपऊ का भद्रकाली मंदिर भी पुरातात्विक मंदिरों की श्रेणी में आता है। “घट रामायण” लिखकर संत तुलसी साहब ने हाथरस की प्रसिद्धि दूर स्थानों में फैल दी थी। उनके शिष्य आज भी उनके समाधि-स्थल सीयल, किला गेट में हजारों की संख्या में अपनी श्रद्धा-भक्ति व्यक्त करने के लिए इकट्ठा होते हैं। उपरोक्त मंदिरों के अतिरिक्त मंदिरों की शृङ्खला में “चौबेवाले महादेव मंदिर”, “चिंताहरन मंदिर”, “मसानी देवी मंदिर”, श्रीनाथजी मन्दिर”, “वाराह मन्दिर” और “भगवान बलराम” के कई मंदिर हैं ।
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