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नई दिल्ली 12 सितम्बर । सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि भारत में विकलांगता के अधिकारों को लेकर सोच पिछले वर्षों में काफी बदली है। पहले इसे दान या मेडिकल समस्या के तौर पर देखा जाता था, लेकिन अब इसे अधिकार-आधारित ढांचे के रूप में मान्यता दी गई है। अदालत ने कहा कि इस बदलाव में न्यायपालिका की भूमिका बेहद अहम रही है। जस्टिस विक्रम नाथ और संदीप मेहता की पीठ ने कहा कि अदालतों ने अपने फैसलों के जरिए विकलांगता को केवल एक बीमारी नहीं, बल्कि सामाजिक और संरचनात्मक कमी के रूप में देखा। इसके लिए सक्रिय उपाय, सुरक्षा और समावेशन की जरूरत है।

संवैधानिक वादे और हकीकत
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि विकलांगता का मुद्दा संवैधानिक वादों और वास्तविक जीवन के बीच की खाई को उजागर करता है। जब कानूनी प्रणाली इसे सिर्फ मेडिकल समस्या मानती है, तो वह अपनी कमजोरी जाहिर करती है। अदालत ने कहा कि कानून को विकलांगता को ‘मानव विविधता’ के हिस्से के रूप में देखना चाहिए।

दिक्कतें और पहुंच की कमी
पीठ ने कहा कि विकलांग व्यक्तियों को आज भी भौतिक ढांचों, डिजिटल प्लेटफॉर्म, सूचना प्रणाली और सरकारी नियुक्तियों में पहुंच की भारी कमी का सामना करना पड़ता है। इससे उन्हें संविधान द्वारा मिले समान भागीदारी के अधिकार से वंचित होना पड़ता है।

अधिकारों की सुरक्षा
अदालत ने याद दिलाया कि विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों की रक्षा विकलांगता अधिकार अधिनियम 2016 और मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम 2017 से होती है। लेकिन इन कानूनों की सही व्याख्या और उनके अधिकारों की असली सुरक्षा में न्यायपालिका ने लगातार संविधान के अनुच्छेद 14, 19 और 21 का सहारा लिया है।

गरिमा और बराबरी का हक
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि विकलांगों की गरिमा इस बात पर निर्भर नहीं होनी चाहिए कि वे मुख्यधारा के मानकों पर खरे उतरते हैं या नहीं। असली समावेशन तब होगा, जब सार्वजनिक सेवाओं और ढांचों को ऐसे बदला जाए कि विकलांगता को समाज की विविधता का हिस्सा माना जाए। अदालत ने कहा कि बराबरी का अधिकार क्षमता पर नहीं, बल्कि गरिमा, स्वायत्तता और समानता के आधार पर होना चाहिए।

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Ayog Deepak

Ayog Deepak is an Indian journalist and businessperson who is the chairman and Editor-in-chief of Hamara Hathras News.

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