
हाथरस 25 दिसंबर । स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास ऐसे असंख्य त्यागी व्यक्तित्वों से भरा पड़ा है, जिन्होंने अपने लिए नहीं बल्कि समाज और राष्ट्र के लिए जीवन जिया। ऐसे ही एक महान, निष्काम और संघर्षशील स्वतंत्रता सेनानी थे हाथरस जनपद के मुंशी गजाधर सिंह, जिनका संपूर्ण जीवन त्याग, बलिदान और जनसेवा की अनुपम मिसाल है। मुंशी गजाधर सिंह का जन्म 25 दिसंबर 1895 को तहसील सिकंदराराऊ (हाथरस) के ग्राम खुशहालगढ़ में एक साधारण किसान परिवार में हुआ। बचपन से ही वे किसानों और मजदूरों की दयनीय स्थिति से व्यथित रहते थे। सामंतवादी व्यवस्था में व्याप्त शोषण और देश की गुलामी ने उनके संवेदनशील मन को आंदोलित कर दिया। वे मानते थे कि जब तक देश स्वतंत्र नहीं होगा, तब तक आम जनता का उद्धार संभव नहीं है।
वर्ष 1923–24 में उन्होंने ग्राम शेखूपुर अजीत में अध्यापन कार्य प्रारंभ किया, किंतु शीघ्र ही स्वतंत्रता आंदोलन की तीव्र लहर ने उन्हें अपने कर्तव्य पथ पर खड़ा कर दिया। उन्होंने अध्यापन त्याग कर स्वयं को पूर्ण रूप से राष्ट्रीय आंदोलन को समर्पित कर दिया। यह निर्णय उनके जीवन का निर्णायक मोड़ साबित हुआ।
आंदोलन के प्रारंभिक काल में ही उन्हें गहरे व्यक्तिगत आघात सहने पड़े। पहली जेल यात्रा के दौरान उनकी पत्नी का देहांत हो गया। इसके बाद उनकी दो मासूम पुत्रियों ने भी संसार छोड़ दिया। परिवार के नाम पर केवल छोटे भाई का एकमात्र पुत्र हरदत्त सिंह शेष रहा, किंतु इन अपार दुःखों के बावजूद मुंशी जी का संकल्प अडिग रहा। वे जनता के सच्चे सिपाही बनकर स्वतंत्रता संग्राम में डटे रहे। मुंशी गजाधर सिंह लंबे समय तक अलीगढ़ जिला कांग्रेस कमेटी के जनरल सेक्रेटरी रहे। इस दौरान उन्होंने ब्रिटिश शासन की कठोर यातनाएं सहीं और अनेक बार जेल गए। स्वतंत्रता संग्राम में उन्होंने विभिन्न आंदोलनों के दौरान कुल 6 वर्ष 3 माह का कारावास भोगा, जो उस समय जिले में सर्वाधिक था। 1929, 1930, 1932, 1940 और 1942 में वे विभिन्न धाराओं में कारावास की सजा से दंडित किए गए। भूमिगत रहकर आंदोलन चलाने के दौरान ग्रामीण जनता उन्हें गुप्त रूप से सहयोग देती थी। कई बार पुलिस की भनक लगते ही उन्हें स्थान बदलना पड़ता था। अंग्रेजी शासन ने उनकी भूमि जब्त की और परिवार को प्रताड़ित किया, किंतु वे झुके नहीं।
कांग्रेस की पूंजीवादी और श्रमिक-विरोधी नीतियों से निराश होकर उन्होंने कांग्रेस से त्यागपत्र दे दिया और कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ गए। इसके बाद उन्होंने किसान, मजदूर और सर्वहारा वर्ग के अधिकारों के लिए जीवन पर्यंत संघर्ष किया। वे सच्चे अर्थों में निष्काम योगी थे। जनसेवा में इतने लीन रहते कि कई बार भोजन तक नसीब नहीं होता, फिर भी वे सिद्धांतों पर अडिग रहे। सत्ता और पद के प्रलोभन को उन्होंने हमेशा ठुकराया। शिक्षा और समाज सुधार के क्षेत्र में भी उनका योगदान उल्लेखनीय रहा। उन्हें बच्चों से विशेष प्रेम था और वे गरीब व मेधावी छात्रों की शिक्षा में सहयोग करते थे। स्त्री शिक्षा के प्रबल समर्थक मुंशी जी ने ग्राम कौमरी (हाथरस) में मुंशी गजाधर सिंह जनता इंटर कॉलेज की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वे दहेज प्रथा और नारी शोषण के कट्टर विरोधी थे, जिसका उदाहरण उनके निजी जीवन में भी देखने को मिलता है। उनके अद्वितीय योगदान के लिए 22 अगस्त 1973 को नागरिक परिषद अलीगढ़ के तत्वावधान में भारत सरकार के तत्कालीन जहाजरानी मंत्री श्री राजबहादुर द्वारा उनका नागरिक अभिनंदन किया गया। 26 नवंबर 1973 को यह महान स्वतंत्रता सेनानी इस संसार से विदा हो गया, किंतु उनका संघर्ष आज भी हमें यह सोचने को विवश करता है कि क्या समाज से शोषण और असमानता समाप्त हो सकी है। उनकी जयंती पर यही संकल्प लेना सच्ची श्रद्धांजलि होगी कि हम उनके आदर्शों—त्याग, निष्ठा और जनसेवा—को अपने जीवन में उतारें।















