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हाथरस 01 दिसंबर । आजादी के भीष्म पितामह कहे जाने वाले स्वतंत्रता सेनानी राजा महेंद्र प्रताप सिंह मां भारती के अविचल अखंड दीप थे। भारत की स्वतंत्रता के लिए उनका त्याग, वीरता और समर्पण सदैव याद रखा जाएगा। अपने जीवन को राष्ट्र के नाम समर्पित करते हुए उन्होंने विदेश में रहकर अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ अलख जगाई और काबुल में ‘हिंद सरकार’ की स्थापना कर अंग्रेजों को सीधी चुनौती दी। राजा महेंद्र प्रताप सिंह ने विश्व को युद्ध की विभीषिका से बचाने के उद्देश्य से “संसार संघ” की स्थापना की और विदेश यात्राओं के दौरान निरंतर देशहित में कार्य करते रहे। इसी दौरान उनकी पत्नी का निधन हो गया, लेकिन वे विपरीत परिस्थितियों में भी कर्मयोगी की तरह अपने संकल्प पर अडिग रहे। उन्होंने “संसार संघ समाचार पत्र” का प्रकाशन भी प्रारंभ किया। ब्रिटिश सरकार ने उन्हें युद्धबंदी बनाकर कैद कर लिया था। वर्ष 1946 में जेल से रिहा होने के बाद वे भारत लौटे और 1947 में अपनी मातृभूमि को स्वतंत्र होते देखा। बाद में वे 1957 से 1962 तक मथुरा लोकसभा क्षेत्र के सांसद रहे। राजा महेंद्र प्रताप सिंह के जीवन का हर क्षण देशभक्ति, मानव एकता और दूरदर्शिता के आदर्शों से प्रेरित रहा। आजादी की लड़ाई में उनकी भूमिका को देखते हुए भारत सरकार ने उनके सम्मान में 25 पैसे मूल्य का डाक टिकट जारी किया, जो वर्तमान में डाक टिकट संग्रहकर्ता शैलेंद्र वार्ष्णेय सर्राफ के संग्रह में सुरक्षित है। शैलेंद्र वार्ष्णेय ने केंद्र सरकार को पत्र भेजकर महान स्वतंत्रता सेनानी राजा महेंद्र प्रताप को भारत रत्न देने की मांग की है। उन्होंने कहा कि देशवासियों को उनके आदर्शों से प्रेरणा लेने का अवसर मिलना चाहिए।

बचपन से ही राजा महेंद्र प्रताप के मन में देश के प्रति समर्पण की भावना थी। आजादी के संघर्ष के दौरान उन्होंने दाढ़ी में गांठ बांधकर प्रतिज्ञा की थी कि यह गांठ देश की आजादी पर ही खुलेगी—और इसी प्रतिज्ञा के अनुरूप देश आजाद होने पर उन्होंने यह गांठ खोली। एक समय हाथरस के ऐतिहासिक किला क्षेत्र में स्वतंत्रता सेनानियों के सम्मान में बनाए गए स्तंभ पर राजा महेंद्र प्रताप का नाम छूट गया था। इस पर आक्रोश व्यक्त करते हुए शैलेंद्र वार्ष्णेय सर्राफ ने जिलाधिकारी को पत्र लिखकर नाम जोड़ने की मांग की। शीघ्र ही जिला प्रशासन ने सुधार करते हुए स्तंभ पर राजा महेंद्र प्रताप का नाम सबसे ऊपर अंकित कर दिया, जिससे स्थानीय नागरिकों में गर्व की अनुभूति हुई। 1914 में प्रेम महाविद्यालय के वार्षिक उत्सव में अंग्रेज कमिश्नर के सामने राजा महेंद्र प्रताप ने कहा था—“हम अन्याय को राजगद्दी से हटाकर न्याय को बिठाएंगे।” इसके बाद वे अंग्रेज सरकार की नजर में खटकने लगे और देश की स्वतंत्रता के लिए विदेशों से संघर्ष शुरू किया। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान वे जर्मनी पहुंचे और जर्मन सम्राट कैसर से मिले। जर्मन सरकार ने उन्हें सम्मानित अतिथि के रूप में युद्धभूमि तक ले जाकर स्थितियों से अवगत कराया, जहाँ जर्मन और रूसी सेनाओं की गोलाबारी के बीच भी उनका साहस अडिग रहा। 29 अप्रैल 1979 को यह महान तपस्वी राष्ट्रभक्त इस दुनिया को अलविदा कह गया, लेकिन उनकी देशभक्ति, त्याग और दूरदर्शिता की गाथा आज भी आने वाली पीढ़ियों को प्रेरणा देती है।

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