हाथरस/सासनी 19 अगस्त। समाज में आधुनिकता के बढ़ते प्रभाव के कारण रक्षाबंधन पर सामाजिक एकता और सदभाव बनाने वाली ब्रज क्षेत्र की बूरा खाने की परम्परा अब दम तोड़ रही है। इतिहास गवाह है कि पहले रक्षाबंधन पर बूरा खाने कि परम्परा का चलन इतना अधिक था कि न केवल नव विवाहित व्यक्ति ही अपनी सुसराल जाता था बल्कि बड़े बुजुर्ग भी इस परम्परा का पुरे जोश से निर्वहन करते थे तथा सजी सजाई बैलगाड़ी से ससुराल जाते थे। बूरा खाने के बहाने विवाहित व्यक्ति अपनी पत्नी को ससुराल से विदा कराकर लाता था। क्योंकि उसकी पत्नी हरियाली तीज के बाद अपने मायके चली जाती थी विवाहित व्यक्ति जिसे दामाद भी कहा जाता था। वह न केवल एक परिवार का दामाद होता था बल्कि पुरे गांव का दामाद होता था तथा उसे मेहमान कहा जाता था तथा समाज का हर परिवार उसे नास्ते या भोजन के लिए बुलाता था. दामाद कि जबरदस्त खातिरदारी होती थी। किन्तु इस परम्परा में अब बहुत अंतर आ गया है गांव गड़ोआ के निवासी शिक्षिक राकेश दीक्षित ने बताया कि जब वे पहली बार बूरा खाने के लिए अपनी ससुराल गए थे तो बैलगाड़ी कि जगह महिंद्रा कि जीप से गए थे। उन्होंने बताया कि प्रत्येक विवाहित व्यक्ति को सौगी ले जाना आवश्यक होता था। सौगी में झूला पटरी, घेवर, बूरा, खेल खिलौने आदि लेकर अपने छोटे भाइयो के साथ जाते थे। उन्होंने बताया कि उनके साथ भी दस छोटे बड़े भाई और गए थे, उस समय दामाद को कुश्ती लड़ने के साथ लम्बी कूद, कबड्डी आदि में भाग लेना आवश्यक था। लोग कम से कम तीन दिन और अधिकतम दस दिन तक ससुराल में रहते थे तथा पूरा गांव दामाद कि खातिरदारी करता था। जब ससुराल से लौटते थे तो दामाद और उसके साथ गए लोगो को रुपए कपड़े आदि देने के साथ शुद्ध देशी घी और सेविया, दाल, चावल तक दिया जाता था। दामाद के साथ उसकी पत्नी भी विदा होकर आती थी। अब तो बूरा खाना कुछ घंटो का ही खेल रह गया है। मेहमान रक्षाबंधन पर या उसके एक दो दिन पहले आते है। दो तीन घंटे ही रुकते है तथा खाना खाकर भेंट लेकर चले जाते है। बहिन भी राखी देकर रक्षाबंधन के दिन बाँधने का निर्देश देकर चली जाती हैं, जाने कहा गए वो दिन।
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