ग़ज़ल
तुमको भी मुहब्बत है बता क्यूं नहीं देते ।
रस्मों को वफ़ाओं की निभा क्यूं नहीं देते ।।
हंसकर के मुझे देते हैं वो दर्दे- जुदाई ;
ज़ख्मों की मगर मुझको दवा क्यूं नहीं देते ।।
आँखों में कहीं दर्द समन्दर सा है गहरा ;
जी भर के मुझे फिर वो रूला क्यूं नहीं देते ।।
इतनी सी ख़ता है कि मुझे इश़्क है उनसे ;
फिर मेरी ख़ता की वो सज़ा क्यूं नहीं देते ।।
बातें वो उजालों की तो करते हैं बहुत ही ;
बस्ती में च़रागों को जला क्यूं नहीं देते ।।
कु० राखी सिंह शब्दिता
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