कार के करिश्मे: काका हाथरसी

रोजाना हम बंबा पर ही घूमा करते
उस दिन पहुँचे नहर किनारे
वहाँ मिल गए बर्मन बाबू
बाँह गले में डाल कर लिया दिल पर काबू

कहने लगे-
क्यों भई काका, तुम इतने मशहूर हो गए
फिर भी अब तक कार नहीं ली ?
ट्रेनों में धक्के खाते हो, तुमको शोभा देता ऐसा,
कहाँ धरोगे जोड़-जोड़कर इतना पैसा ?

बेच रहे हैं अपनी (पुरानी) गाड़ी-
साँवलराम सूतली वाले
दस हजार वे माँग रहे हैं
पट जाएँगे, आठ-सात में
हिम्मत हो तो करूँ बात मैं ?

हमने कहा-
नहीं मित्रवर, तुमको शायद पता नहीं है
छोटी कारें बना रहा है, हमारे दोस्त का बेटा संजय
जय हो उसकी,
सर्वप्रथम अपना न्यू मॉडल
काका कवि को भेंट करेगा।
हमने भी तो जगह-जगह कविसम्मेलन में कविता गाई

एलेक्शन में जीत कराई।
हँसकर बोले बर्मन भाई-
वाह, वाह जी,
जब तक कार बनेगी उनकी,
तब तक आप रहेंगे जिंदा ?
भज गोविंदा, भज गोविंदा।

तो बर्मन जी,
हम तो केवल पाँच हजार लगा सकते हैं,
इतने में करवा दो काम,
जय रघुनंदन, जय सियाराम।
तोड़ फैसला हुआ कार का छह हजार में,
घर्र-घर्र का शोर मचाती कार हमारे घर पर आई
भीड़ लग गई, मच गया हल्ला,
हुए इकट्ठे लोग-लुगाई, लल्ली-लल्ला।
हमने पूछा-

‘क्यों बर्मन जी, शोर बहुत करती है गाड़ी ?’
‘शोर बहुत करती है गाड़ी ? कभी खरीदी भी है मोटर,
जितना ज्यादा शोर करेगी, उतनी कम दुर्घटना होगी
भीड़ स्वयं ही हटती जाए,
काई-जैसी फटती जाए,
बहरा भी भागे आगे से,
बिना हॉर्न के चले जाइए सर्राटे से।

‘बिना हॉर्न के ? तो क्या इसमें हॉर्न नहीं है ?’
‘हॉर्न बिचारा कैसे बोले,
काम नहीं कर रही बैटरी’
‘काम नहीं कर रही बैटरी ?
लाइट कैसे जलती होगी ?’
‘लाइट से क्या मतलब तुमको,
यह तो क्लासीकल गाड़ी है,
देखो कक्कू,
सफर आजकल दिन का ही अच्छा रहता है
कभी रात में नहीं निकलना।

डाकू गोली मार दिया करते टायर में
गाड़ी का गोबर हो जाए इक फायर में
रही हॉर्न की बात,
पाँच रुपए में लग जाएगा
पौं-पौं वाला (रबड़ का)
लेकिन नहीं जरूरत उसकी
बड़े-बड़े शहरों में होते,
साइलैंस एरिया ऐसे
वहाँ बजा दे कोई हौरन,
गिरफ्तार हो जाए फौरन

नाम गिरफ्तारी का सुनकर बात मान ली।
‘एक प्रश्न और है भाई,
उसकी भी हो जाए सफाई।’
‘बोलो-बोलो, जल्दी बोलो ?’
ड्राइवर बाबूसिंह कह रहा-
तेल अधिक खाती है गाड़ी ?’
‘काका जी तुम बूढ़े हो गए,
फिर भी बातें किए जा रहे बच्चों जैसी।

जितना ज्यादा खाएगा वह उतना ज्यादा काम करेगा’
तार-तार हो गए तर्क सब, रख ली गाड़ी।
उस दिन घर में लहर खुशी की ऐसी दौड़ी
जैसे हमको सीट मिल गई लोकसभा की
कूद रहे थे चकला-बेलन,
उछल रहे थे चूल्हे-चाकी
खुश थे बालक, खुश थी काकी
हुआ सवेरा-

चलो बालको तुम्हें घुमा लाएँ बाजार में
धक्के चार लगाते ही स्टार्ट हो गई।
वाह-वाह,
कितनी अच्छी है यह गाड़ी
धक्कों से ही चल देती है
हमने तो कुछ मोटरकारें
रस्सों से खिंचती देखी हैं
नएगंज से घंटाघर तक,
घंटाघर से नएगंज तक
चक्कर चार लगाए हमने।

खिड़की से बाहर निकाल ली अपनी दाढ़ी,
मालुम हो जाए जनता को,
काका ने ले ली है गाड़ी
खबर दूसरे दिन की सुनिए-
अखबारों में न्यूज आ गई-
नए बजट में पैट्रोल पर टैक्स बढ़ गया।
जय बमभोले, मूंड मुड़ाते पड़ गए ओले।
फिर भी साहस रक्खा हमने-
सोचा, तेल मिला लेंगे मिट्टी का पैट्रोल में
धूआँ तो कुछ बढ़ जाएगा,
औसत वह ही पड़ जाएगा।

दोपहर के तीन बजे थे-
खट-खट की आवाज सुनी, दरवाजा खोला-
खड़ा हुआ था एक सिपाही वर्दीधारी,
हमने पूछा,
कहिए मिस्टर
क्या सेवा की जाए तुम्हारी ?
बाएँ हाथ से दाई मूँछ ऐंठ कर बोला-
कार आपकी इंस्पेक्टर साहब को चाहिए,
मेमसाहब को आज आगरा ले जाएँगे फिल्म दिखाने,
पैट्रोल डलवाकर गाड़ी,
जल्दी से भिजवा दो थाने।
हमने सोचा-

वाह वाह यह देश हमारा
गाड़ी तो पीछे आती है, खबर पुलिस को
पहले से ही लग जाती है।
कितने सैंसिटिव हैं भारत के सी.आई.डी.
तभी ‘तरुण’ कवि बोले हमसे-
बड़े भाग्यशाली हो काका !
कोतवाल ने गाड़ी माँगी, फौरन दे दो
क्यों पड़ते हो पसोपेश में ?

मना करो तो फँस जाओगे किसी केस में।
एक कनस्तर तेल पिलाकर
कार रवाना कर दी थाने
चले गए हम खाना खाने।
आधा घंटा बाद सिपाही फिर से आया, बोला-
‘स्टैपनी दीजिए।’
हमने आँख फाड़कर पूछा-
स्टैपनी क्या ?
‘क्यों बनते हो,

गाड़ी के मालिक होकर भी नहीं जानते
हमने कहा-
सिपाही भइया
अपनी गाड़ी सिर्फ चार पहियों से चलती
कोई नहीं पाँचवा पहिया,
लौट गया तत्काल सिपहिया।

मोटर वापस आ जानी थी, अर्धरात्रि तक,
घर्र-घर्र की उत्कंठा में कान लगाए रहे रातभर ऐसे
अपना पूत लौटकर आता हो विदेश से जैसे
सुबह 10 बजे गाड़ी आई
इंस्पेक्टर झल्लाकर बोला-
शर्म नहीं आती है तुमको-

ऐसी रद्दी गाड़ी दे दी
इतना धूआँ छोड़ा इसने,
मेमसाहब को उल्टी हो गई।
हमने कहा-
उल्टी हो गई, तो हम क्या करें हुजूर
थाने को भेजी थी तब बिल्कुल सीधी थी

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